चलो भाई, कलयुग है। मानव के उत्साह और सोच से बड़ी यहाँ की मिथ्या तर्कबाजी है। हां मैं बात कर रहा हूं 5 अप्रैल 2020 को मनाई गई दीवाली की। अब आप सोच रहे होंगे कि इस महीने कहां दीवाली होती है। वह तो साल के अंत के महीनों में आता है। पर भाई ये भी दीवाली ही है। उस दीवाली को मनाने का मक़सद भी मानव की बुराई पे जीत का जश्न मनाना है ताकि इंसान के अन्तर्मन में ये बात हमेशा रहे कि चाहे कैसे भी विपदा आ जाए विजय अच्छाई की होगी और इस दीवाली का मक़सद भी यही है। कोरोना पर भारतीय सोच की जीत।
एक सोच विश्व का नक्शा बदलने का दम रखती है। मुझे आपको इसके लिए उदाहरण लिखने की आवश्यकता महसूस नहीं होती क्यूं कि इतिहास भरा पड़ा है ऐसे उदाहरणों से। भारत का कोरोनावायरस के खिलाफ 5 अप्रैल 2020 को किया गया प्रयास भारतीय समाज की मुश्किल वक्त में कभी ना हार मानने की प्रवृत्ति को प्रर्दशित करता है। प्रधानमंत्री के एक आह्वान ने भारतीय समाज में कोरोनावायरस की वजह से हुई दूरियों को चुटकियों में मिटा दिया। परंतु आग लगी पड़ी है उन तर्कबाजों के मन में जो सिर्फ क्रियात्मक विचारधारा के पक्ष में सामाजिक मूल्यों के महत्वों को भूल चुके हैं। भले दिए की लौ कोरोनावायरस को हरा ना सके परन्तु ये जनता के मन में एक उत्साह और उमंग जरूर पैदा कर देगी जो कि किसी भी बीमारी के खिलाफ सबसे रामबाण औषधि है।
अब बात करता हूं इन्हीं महानुभावों की जिनकी प्रकृति ही सिर्फ तर्कबाजी की बन गई है। मानवीय मूल्यों का उनके जीवन में कोई मोल नहीं। जैसे हमारे वकील साहब ए पी सिंह। जिन्होंने निर्भया के दोषियों को दन्डित होने से बचाने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया था। उनके तर्क भले ही जीवन को बचाने के थे परन्तु क्या इससे समाज में फैले उन कचरों के पास ये संदेश नहीं पहुंचता की हमें कोई तो बचा ही लेगा, चलो किसी ओर निर्भया को पकड़ते हैं। ख़ैर इस विषय पे किसी ओर दिन लिखूंगा। पहले समाज में फैले इन तर्कबाजों की नींद उड़ाता हूं।
तर्क करना सही है परन्तु जब तक ही करना चाहिए जब तक की विषय समाज को बांट रहा हो। इस बार विषय है कोरोनावायरस। जिसने भारत में 12 दिन से त्राहि त्राहि मचा रखी है। खुद के घर एक जेल बन गए हैं। सामाजिक मेल मिलाप ख़त्म हो गया है। अर्थव्यवस्था घायल हो चुकी है। लाखों लोगों को अब ये लगने लगा गया है कि अब धरती पर क्या होगा। चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ है। भय का माहौल है। चिंता चिता की ओर ले जा रही है।
ऐसे भयानक माहौल में अगर कुछ ऐसे करना का प्रयास किया जाए की समाज को एक उम्मीद दिखाई दे तो इसमें बुरा क्या है? बताइए तर्कबाजों। आप लोग बोलेंगे की किसी लड़ाई को लड़ने के संसाधनों का होना जरूरी है और सरकार को उस पे ध्यान देना चाहिए ना की कभी ताली-थाली बजाने में और ना ही दिया जलाने में। पर मूर्खता की हद होती है क्यूं कि आप लोगों को तर्क का अचार पसंद है। कलयुग है। आपसे यही उम्मीद की जाती है परन्तु किसी भी लड़ाई को लड़ने के लिए संसाधनों से ज्यादा जरुरत एक चिंता मुक्त सोच की होती है। एक ऐसी मानवीय सोच जिसमें हर मुश्किल वक्त में धैर्य और विश्वास की काबिलियत हो। परंतु तर्कबाज ये नहीं समझेंगे। उनके लिए तर्क करना और मिथ्या बयान सर्वोपरी है। कुंठित दिमाग जो ठहरा।
सही कहा गया है कि कलयुग में धर्म के चार स्तम्भों में से एक ही बचेगा। वो है सच्चाई। और इसको साबित करने के लिए बाकी तीन स्तम्भों का होना अत्यंत आवश्यक है। तभी तो तर्क के ऊपर तर्क दिए जा रहे मानवीय मूल्यों की सच्चाई को साबित करने के लिए। हिन्दू धर्म से तो इन तर्कबाजों को जैसे बैर है। व्यक्तिगत रुप से मैं किसी धर्म से बैर नहीं करता क्यूं कि मेरा धर्म सबका सम्मान करना सिखाता है। परन्तु इन तर्कबाजों की समझ किसी धर्म से नहीं जुड़ी दिखती।
अगर यही विनती किसी यूरोपीय या अमेरिकी राष्ट्र के नेता ने की होती तो यही तर्कबाज जान लें लेते ये बोल बोल के भारत ऐसा सामाजिक कार्य क्यूं नहीं करता? विज्ञान से भी इसे जोड़ देते। गलती इनकी नहीं है। गुलामी खून में भर गई है इनके। स्वाभिमान नाम का अंश इनके जीवन से हट चुका है। ये तर्कबाज सिर्फ एक दूसरे को कोपी पेस्ट करने में लगे रहते हैं। स्वयं के निर्णय लेना गुलामी के वक्त ही इनसे छिन लिया गया था।
अगर यही विनती किसी यूरोपीय या अमेरिकी राष्ट्र के नेता ने की होती तो यही तर्कबाज जान लें लेते ये बोल बोल के भारत ऐसा सामाजिक कार्य क्यूं नहीं करता? विज्ञान से भी इसे जोड़ देते। गलती इनकी नहीं है। गुलामी खून में भर गई है इनके। स्वाभिमान नाम का अंश इनके जीवन से हट चुका है। ये तर्कबाज सिर्फ एक दूसरे को कोपी पेस्ट करने में लगे रहते हैं। स्वयं के निर्णय लेना गुलामी के वक्त ही इनसे छिन लिया गया था।
भारतीय सोच अपने आप में बहुत खास है। यहां इसमें बाकि सब से ऊपर परोपकार और मानवता को ठूंस ठूस के भरा गया है। परन्तु आज हम ऐसे द्वंद्व में है की ये समझना कठिन हो गया है कि हमारा झुकाव किस सोच की ओर झुका हुआ है। ऐसे मुश्किल वक्त को भी एक त्योहार की तरह सिर्फ एक भारतीय मना सकता है।
मैं तर्कबाजो से द्वेष नहीं करता। परन्तु इन ज्ञानी लोगों से हाथ जोड़कर विनती है कि इस देश को अपने मूल्यों पर चलने दे। हो सके तो पश्चिमी सभ्यता को इसमें ना मिलाएं। थक चुके लोग आप लोगों की तार्किक बातों से। नहीं समझ आती हमें ये बातें। हमारी प्रतिस्पर्धा किसी देश से नहीं। हम नहीं बनना चाहते अमेरिका या यूरोप। क्यूं कि हम भारतीय हैं।
मैं तर्कबाजो से द्वेष नहीं करता। परन्तु इन ज्ञानी लोगों से हाथ जोड़कर विनती है कि इस देश को अपने मूल्यों पर चलने दे। हो सके तो पश्चिमी सभ्यता को इसमें ना मिलाएं। थक चुके लोग आप लोगों की तार्किक बातों से। नहीं समझ आती हमें ये बातें। हमारी प्रतिस्पर्धा किसी देश से नहीं। हम नहीं बनना चाहते अमेरिका या यूरोप। क्यूं कि हम भारतीय हैं।
इसी के साथ धन्यवाद। कृपया करके घर पर रहें, स्वस्थ रहें। विज्ञान से बड़ा और जटिल मनोविज्ञान है। धैर्य और उत्साही बने रहें। और जिन्होंने भी इस दिन पटाखे चलाये है वो साले तो इन तर्कबाजों से भी गये गुजरे।
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